बचपन में बरसात कुछ अलग थी
वो अल्ल्हड़ मासूम मुस्कराहट अलग थी
लाती हवाये थी
पतंगों की उमंगें
कागज की कश्ती थी
पर करती तरंगे
पानी जो गिरता
दिल झूम झूम उठता
बारिश का कलरब
राग-सितार सा था लगता
वो सावन की महक अलग थी
वो अल्ल्हड़ मासूम मुस्कराहट अलग थी
आज फिर जब बादल है छाये
लगता साथ उदासी है लाये
उमड़ घुमड़ घनघोर है बरसे
नादान मन बिन बात है तरसे
परिंदे अपने पथ से भटके
कुछ पेड़ो की ओट में दुबके
हम भी अपने आप में सिमटे
बाहों की उनकी चाह में लिपटे
पर अंधड़ विकाल बड़ा था
चहु दिश फण काढ़े काल खड़ा था
कुछ अभागो के भाग में
नहीं कल का सूरज लिखा था
नहीं जो अपने घरोंदो में लौटे
बच्चे उनके, माँ की आहट को तरसे
भीगे हम भी , पर अश्को में
बजह अश्को की, कोई पूछले
हम इतनी सी, चाहत को तरसे